आजादी के 70 वर्षो बाद भी आधारभूत आवश्यकताओं से जूझता हुआ देश. सपनो और वादों के क्षूठ से आज भी हर रोज ठगा जा रहा है , इस देश को नाम मात्र की आजादी मिली देश की 90 फीसदी जनता आज भी अपनी मुलभुत आवश्यकताऔ के पूरे होने का इंतजार कर रही है. शिक्षा, चिकित्सा, भोजन की आवश्यकता तो सबके के लिए सामान है फिर उसकी पूर्ति सामान क्यों नहीं ? आज भी हम आबादी के ज्यादातर हिस्से को शिक्षा, स्वास्थ ,भोजन रोजगार नहीं दे पाए. कारण क्या रहा ! दरसल आजादी के बाद देश के विकाश के लिए जो मॉडल अपनाया गया वह ही साठ -गाठ वाला रहा, हमने मिश्रित अर्थव्यवस्था (Mixed Economy) को अपनाया, समाजवाद पूँजीवाद का मिश्रित स्वरुप , परन्तु दोनों में संतुलन बनाये रखने के लिए जनता का जागरूक होना शिक्षित होना आवश्यक था जो हमने नहीं किया, जिसका परिणाम यह रहा की देश के 90 फीसदी संसाधनों पर कॉर्पोरेट का अधिकार हो गया देश कॉर्पोरेट गुलामी की ओर बढ़ रहा है. दरसल आजादी के खुछ वर्षो बाद खास कर नेहरू तथा शास्त्री जी के निधन के बाद देश में समाजवाद का समापन होने लगा कारण रहा राजनितिक इच्छाशक्ति की कमी 80 के दसक तथा 90 के प्रारंभ तक अनिर्णय की स्थिति रही इंदिरा जी ने प्रारम्भ में बैंको का राष्ट्रीयकरण कर के नेहरू की विरासत को सम्हालने की कोशिश की परन्तु फिर सत्ता के लालच ने उनको भी मजबूर कर दिया. अनिर्णय की स्थिति ने 91-92 में अर्थव्यवथा को पटरी से उतर दिया और नरसिह राव मनमोहन सिंह की जोड़ी ने आखिरकार पूँजीवाद के आगे नतमस्तक होना स्वीकार कर लिया . जो की उस परिस्थति ने आवश्यक भी था . और फिर शुरू हुआ कॉर्पोरेट और राजनितिक सत्ता का वह गठजोड़ जो देश को कॉर्पोरेट के हाथो गुलाम बनता जा रहा है . राजनेताओ की सत्ता की लालसा ने उन्हें कॉर्पोरेट के हाथो की कटपुतली बना दिया पैसे से सत्ता सते से पैसा यही खेल चल रहा है कॉर्पोरेट को पैसा चाहिए और राजनेता को सत्ता दोनों ने एक दूसरे को पूरक बना दिया . राजनीतिया (political policies) इस तरह से बनने लगी जो की कॉर्पोरेट के हीत में हो राष्ट्र के संसाधनों को कॉर्पोरेट घरानो के हाथो बेचा जाने लगा है कॉर्पोरेट घरानो ने राजनितिक पार्टियों को चंदो का अग्रासन देने लगे नेताओ ने जिसका उपयोग चुनाव ने किया और सत्ता प्राप्त की पिछले कुछ वर्षो इस खेल की एक बानगी देखीये ADR के आकड़ो में
इस देश के नेताओ ने कॉर्पोरेट से अपने वफादारी को खूब निभाया पिछले बजट में महज 1.51 लाख करोड़ रूपये शिक्षा, स्वास्थ और अन्य सोशल सेक्टर को दिया गया जबकि कॉर्पोरेट को 572923 करोड़ रूपये कॉर्पोरेट को टैक्स छूट दे दी गई. यह खेल केवल पिछले वर्ष का नहीं खेल पूराना है. 1950 से 2016 तक के दौर में सिर्फ 23 फीसदी सिचाई की व्यवस्था खेती में हो पायी 60 वर्ष के ग्रामीण विकास का बजट बीते 10 वर्ष के कॉर्पोरेट छूट से भी कम रहा यानी ये कल्पना से परे है की गरीब और ग्रामीण भारत के समानांतर शहरी गरीब और आधुनिक शहरो पर जो खर्च तमाम सत्ता ने किये अगर उतना पैसा गांव के इंफ्र्रा पर हो जाता तो 12 करोड़ ग्रामीण आबादी को शहरों में पलायन न करना पड़ता व् 11 करोड़ शहरी गरीब प्रति दिन 35 रूपये से कम पर जिंदगी बसर नहीं करते .
नेता नौकरशाही चाटुकार और कॉर्पोरेट का कॉकटेल कितना खतरनाक है क्योकि ग्रामीण भारत का सच है की 82 फीसदी परिवारों की आय 5 हजार रूपये महीने से कम है ,7.9 फीसदी परिवार की आय 10000 से कम की है और 4.7 फीसदी की आय 15000 रूपये महीने से कम है. यांनी जिस देश में गरीबी की रेखा 32 रूपये रोज पर तिकी हो, जिस देश में 80 फीसदी गांव वाले भूमिहीन मजदूर है, उस देश में 38000 करोड़ मनरेगा के नाम पर दे कर सरकार अपना पीठ दोकटी है सच कोन कहेगा की सिर्फ पिने का साफ पानी और दो जून की रोटी देने के लिए सरकार के पास बजट नहीं है . और हर घंटे 7 करोड़ व् हर वर्ष 5 लाख करोड़ डायरेक्ट कॉर्पोरेट टैक्स ( Direct Corporet Tax) माफ करने का समय भी है और बजट भी. किशानो के छोटे- छोटे लाख दो लाख के कर्ज जिसके कारण किसान आत्महत्या करते है, को माफ़ करने में जिन नेताओ के गुर्दे लाल होते है कॉर्पोरेट के पिछले पांच वर्षो में 2.5 लाख करोड़ के लोन अपलिखित ( write -Off )कर देना उनके लिए वफादारी का नमूना है.
तो राजनीतिक सत्ता की कॉर्पोरेट के प्रति वफादारी या साठ -गाठ का यह गठबंधन ही क्रोनी कपिलिस्म Crony Capitalism कहां गया दरसल यह शब्द तब प्रचलन में आया जब 1994 में साऊथ एशिया में मंदी का कारण बना .
कॉर्पोरेट गुलामी का मंजर कितना भयानक है की देश का 70 फीसदी युवा इन पर रोजगार व् नौकरी के लिए निर्भर है जिसमे ना तो नौकरी का स्थायित्व है न ही ाचा वेतन 12 से 15 घंटे काम करने के बाद भी उसके हाथो में कुछ नहीं लग रहा है, ठुकड़ो की यह नौकरी गुलामी नहीं तो क्या है जिस देश का युवा गुलाम हो व देश तो गुलाम ही कहा जायेगा. सत्ता के लालच ने सरकार को कितना अँधा कर दिया है.
तो देश जिस ओर चल पढ़ा है या प्रधानमंत्री मोदी कॉर्पोरेट का मोह छोड़े बिना जिस और ले जाना चाहते है उसकी सीमा रस्सी से बढे उस गाय की तरह वही तक है जितने की उसके गले में बढे रस्सी .
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